हावी हो रही विदेशी ताकतें दशा देश की बिगड़ी
आतंकियों का उग्र रूप मारे स्वतंत्रता को टँगड़ी
चहुँ-दिश है लूट-पाट और अनीति का साम्राज्य
बहरे हुए सत्ताधीश और सरकार है अँधी-लँगड़ी।।
रास्ते. भटक. गये हैं. मँजिलों. की चाह में
कसमसा उठी हैं मँजिलें समय की बाँह में
विडम्बना मुहुर्त हो गयी अतृप्त आस की
निष्प्राण. उमँग सो गयी थकी हुई आह में।।
दूषित दशा-दिशा से भारत अब उद्धार चाहता है
देशवासियों देश तुमसे अब ये उपकार चाहता है
समय के भीषण वज्रपात से भारत दहल रहा है
संस्कृति का यह उपहास अब उपचार चाहता है।।
क्या ऐसा मोहिनी सोनल रूप कहीं आँखों ने है देखा
मनोरमा के नख-शिख का भूगोल रहा कैसे अनदेखा
रक्ताभ कपोल पर नारँगी धूप सम चहकती चितवन
कौन लिख पायेगा बोलो इस रूपमनी रूपसी का लेखा।।
दर-दर भटक रही तरुणाई, पीत वसन ओढ़े-लहराये
भूखे पेट भटकता भारत, यौवन हाट-हाट बिक जाये
कान्ति-हीन हो गया मुखौटा, पीड़ा संगिनी बन आई
भावों का असफ़ल व्यापारी, कैसे गीत प्यार के गाये।।
उठो जवानों हर-हर कह झँझा बन सोए पौरुष का ज्वालामुखी जगाओ
बन कर महाकाल विकराल बवन्डर, पापी दुश्मन देश में आग लगाओ
उठो दीवानों अब न करो देर हुँकार भरो, बढ़ कर दुश्मन का सँहार करो
मानवता के इन हत्यारों का वध कर धरती पर नरमुँडों का ढेर लगाओ।।
देश की आबो-हवा में घुल गई नापाक बारूदी गँध किस कदर
बुजदिल हुई राजसत्ता, जन-जन का खौलता खून का सागर
दोस्त के भेष में दुश्मन सजा रहा रोज ही अदब की महफ़िले
हम बन के अमन के पुजारी बस रोज उड़ा रहे सफ़ेद कबूतर।।
जब बसन्त ही पौधे चर जाये तब कैसे पुष्प खिलें
भरी दुपहरी ढ़ल जाये सूरज, तब साँझ कहाँ मिले
सूखे-भूखे खेत छाती फ़ाड़-फ़ाड़ चिल्लाते रह जाते
कुएँ जहाँ खुद ही हों प्यासे, वहाँ पानी कहाँ मिले।।