Sunday, November 11, 2012

{ ३९६ } {Nov 2012}





मँजिलें भी ले रहीं हैं अब गजब का इम्तिहाँ
बेल-बूटे-शजर भी न छोडे रास्ते के दर्मियाँ
दिलों के राज भी अब कैद सी महसूस करते
खनक रही हैं इस लिये लबों की खामोंशियाँ।।

-- गोपाल कृष्ण शुक्ल

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